9 जनवरी 2015

तिलक सफल हो जाते तो,अखंड हिंदू स्वराज्य का संकल्प पूर्ण होता !


लोकमान्य तिलकजी का राजनीतिक पदार्पण पूर्व कार्य 
तिलकजी का सामाजिक-राष्ट्रीय क्रांति का व्यासपीठ "सार्वजानिक सभा" बना। उनके साथ संस्थापक अधिवक्ता गणेश वासुदेव जोशी,रानडे,गावंडे,क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत फड़के,ज्योतिबाराव फुले प्रारंभिक काल में थे। "स्वदेशी आंदोलन" के जनक गणेश वासुदेव जोशी जिन्हे "सार्वजनिक काका" कहा जाने लगा था,वह थे। ब्रिटन की महारानी के दरबार में खादी के वस्त्र पहनकर जाने का क्रांतिकारी प्रदर्शन कर वस्त्रोद्योग को प्रोत्साहित और विदेशी वस्त्रों का त्याग किया था।
लोकमान्य तिलकजी द्वारा ७ अक्टूबर १९०५ लकड़ी पुल-पुणे "विदेशी वस्त्रों की होली" को अग्नि देने का सौभाग्य छात्र विनायक दामोदर सावरकर को मिला। तिलक प्रेरणा से चापेकर बंधू क्रांतिकारी बने। "हिन्दू स्वराज्य"को अभिव्यक्त कर तथा सामाजिक ऐक्य का सार्वजनिक उत्सव "गणेशोत्सव" तथा "छत्रपति शिव जयंती" यह उनकी देन। उनकी जहाल मानसिकता और ब्रिटिश सरकार से विद्रोह की भूमिका के कारन उन्हें तीन बार "राजद्रोह" के अभियोग में दंडित होना पड़ा।
१९०७ सुरत कांग्रेस अधिवेशन में उनकी स्वराज्य विषयक अगतिकता को ब्रिटिश सरकार के निष्ठावान कांग्रेसियों ने दबा दिया। मात्र इस घटना के कारन डॉक्टर बा.शि.मुंजे उनके अनुयायी बने। इस अधिवेशन में,ब्रिटिश सरकार पर रोष व्यक्त करने के कारन दूसरी बार राजद्रोह का अभियोग १३ जुलाई १९०८ से प्रारंभ हुआ। २३ सप्तम्बर १९०८ को छह वर्ष कालेपानी की घोषणा हुई।
मंडाले-बर्मा कालापानी :-
मंडाले के बंदीवास में उन्हें "मधुमेह" हुआ और स्वास्थ्य अशक्त हुआ। उनके आहार-उपचार की व्यवस्था सरकार ने ठीक से संभाली। मात्र संध्या समय ५ बजे से बारह घंटे एकांतवास था। १८५७ के अनेक क्रांतिकारी अंदमान में थे। तिलकजी ने सरकार से उद्विग्न अवस्था में कहा कि,'मुझे आजन्म कालापानी नहीं सुनाया गया है। इसलिए मुझे अंदमान स्थलांतरित किया जाए। ' तब उन्हें वार्डन बनाया गया। पुणे का एक बंदी कुलकर्णी को उनके भोजन-जल-औषधि की व्यवस्था के लिए लाया गया। तीन महीने में एकबार बाहरी व्यक्ती से मिलने या समक्ष पत्र लिखने की अनुमती मिली।
मंडाले में कॉलरा का प्रादुर्भाव हुआ तब उन्हें मिक्टील्ला के कारागार ले जाने के लिए रेल स्थानक तक सड़क की दोनों ओर आरक्षकों का घेरा बनाया गया। बंद गाड़ी में उन्हें रेल स्थानक में लाते ही प्रचंड संख्या में उमड़ी भीड़ ने उनके नाम का जयकारा लगाया। मिक्टील्ला में पहुंचने पर भी स्थानिक जनता ने उनका भव्य स्वागत किया। यह देखकर जेलर ने उन्हें पूछा,'आप किस संस्थान के अधिपति हो ?' मात्र इस घटना से तिलकजी की राष्ट्रीय लोकप्रियता प्रकट हुई।
२२ जुलाई १९१४ को उनकै बंदिवास के छह वर्ष पूर्ण हो रहे थे। सरकार ने उनकी मुक्तता के विषय में गंभीरता पूर्वक गोपनीयता बनाई रखी थी। पुणे के पुलिस इस्पेक्टर सदावर्ते को मंडाले भेजकर १७ जून १९१४ की मध्यरात्री में ही उन्हें गायकवाड़ बाड़े में उनके निवासस्थान लाया गया। तब तक किसी को भी उनके आने की भनक नहीं थी। उन्हें मिलने के लिए मात्र रात्री से ही भीड़ बढ़ी अंततः सरकार ने २५ जून को अध्यादेश निकालकर भेट प्रतिबंधित की। अभ्यागतों के नाम गाम लिखे जाने लगे।
४ अगस्त १९१४ महायुध्द का शंखनाद उनके लिए अवसर सिध्द हुआ। उन्होंने जनता को सरकार से सहकार्य की मांग करनी थी। उसमे उन्होंने जो आवाहन किया उसमे से,"हम आयरिश लोगों की भांति हिन्दुस्थान को स्वराज्य मांगनेवाले और उसके लिए प्रयास करनेवाले है !" इस वाक्य को चिरोल ने निकालकर प्रकाशित करवाया। तथा उनकी भेट पर लगाया प्रतिबंध दूर किया। इस घटना के पश्चात तिलकजी ने अपने दैनिक केसरी से सैनिकी शिक्षा की आवश्यकता को प्रतिबिंबित करने का उद्योग चलाया।
पुणे में एक जनसभा को संबोधित करते हुए कांग्रेस में उनका जो आतंरिक विवाद था उसपर कहा कि,'हम आवश्यकता के अनुसार,किसी एक दल का निर्माण करके होमरूल की मांग उठाते रहेंगे और एखाद स्वराज्य विषयक प्रस्ताव पार्लमेंट में लाएंगे !"इस घोषणा के पश्चात तत्काल २५ सप्तम्बर १९१५ के न्यू इंडिया समाचार पत्र में एनी बेझंट ने लिखा कि,'होमरूल लीग इस कांग्रेस पूरक राजनितिक शिक्षा देने के उद्देश्य से संस्था स्थापित करने की घोषणा करते ही तिलकजी ने समर्थन किया।' बेझंट ने होमरूल निकालते ही तिलक विरोधी मोतीलाल नेहरू के साथ हो गए। जहाल गुट तिलक विरोधी नेमस्त समाचार पत्र लीडर,एडवोकेट,हितवाद ने बेझंट का समर्थन करने के कारन दादाभाई नवरोजी ने उसकी अध्यक्षता का स्वीकार भी किया। मात्र इसके परिणाम बेझंट को भुगतने पड़े। (२७ फरवरी १९२० मोतीलाल नेहरू ने अपने पुत्र जवाहरलाल को लिखे पत्र में इसका उल्लेख मोतीलाल ने किया है। ) A Bunch of Old Letters-J.L.Neharu
इस घटना मध्य बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी अफ्रीका से लौटे और नामदार गोखले की सूचना पर भारत भ्रमण पर हरिद्वार में १३ अप्रेल १९१५ महामना पंडित मदनमोहन मालवीय तथा पंजाब केसरी लाला लाजपत राय द्वारा अखिल भारत स्तरपर स्थापित हिन्दू महासभा के स्थापना महोत्सव में रहकर मालवीयजी के मार्गदर्शन का स्वीकार करने लगे।
१९१४ मुंबई अधिवेशन में कांग्रेस ने महायुध्द पश्चात हिन्दुस्थान को दिए जानेवाले सुधार प्रस्ताव का मसौदा तयार करने के लिए पांच सदस्य समिती बनाई। जिन्ना,मजरुल हक़,सीतलवाड,मोतीलाल नेहरू और पंडित मालवीय थे। मोतीलाल ने भविष्यत् संविधान में मुसलमानों को विशेषाधिकार देने की मांग को समर्थन देनेवाला प्रस्ताव तयार किया था। ऐसा कहा जाता है कि,"इस प्रस्ताव को मालवीयजी ने विरोध तो,सीतलवाड ने समर्थन दिया मात्र जिन्ना-हक़ तयार नहीं थे। कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों दलों में कार्यरत जिन्ना के समक्ष प्रश्न यह खड़ा हुआ कि,कांग्रेस के साथ सक्रीय राजनीती में रहकर हिन्दू महासभा के नेता मालवीय का समर्थन करने का ठीकरा मुझपर फूटे ना इसलिए मोतीलाल का समर्थन किया। " इस पांच सदस्य समिती में बहुमत से पारित प्रस्ताव कांग्रेस के खुले अधिवेशन में पारित हुआ। तो,बेझंट के स्वराज्य विषयक प्रस्ताव  को अध्यक्ष सत्य प्रसन्न सिंह ने नकारते हुए,"कांग्रेस के उद्देश्य में वह बैठते नहीं !" कहा।
ब्रिटिश सरकार को अनुकूल कांग्रेस नेताओं को सरकार से कोई अवरोध नहीं होता था। वहीं,स्वराज्य और होमरूल की मांग करनेवाले शब्द प्रयोग करने पर लोकमान्य तिलक पर जुलाई १९१६ में तीसरा राजद्रोह का अभियोग बैठा। मात्र युक्तिवाद में उच्च न्यायालय में तिलक की जीत हुई। दोषमुक्त होकर जामिनकी रद्द हुई।

विवादित लखनऊ करार और तिलकजी की भूमिका 
ब्रिटिश सरकार के इशारेपर कांग्रेस अपने अजेंडे बनाती रही थी। ऐसा ही महत्वपूर्ण अधिवेशन दिसंबर १९१६ लखनऊ में संपन्न हुआ। सरकार ने तिलकजी को इतना पीट लिया था कि,अब उनका भय न कांग्रेस को रहा न ब्रिटिश सरकार को। फिर भी तिलक प्रत्येक रेल स्थानक पर स्वागत स्वीकार करते हुए "होमरूल विशेष रेल" से लखनऊ पहुंचे। उनके स्वागत के लिए पंडित मदनमोहन मालवीय सामने आएं और छेदीलाल धर्मशाला में उनके निवास की व्यवस्था की। तिलकजी को अधिवेशन मंडप में भी शोभायात्रा निकालकर लाया गया। इस मंडप में,"स्वराज्य की प्यास सुराज्य से नहीं !" इस आशय के लिखे कागज चिपकाए गए थे। मात्र किसी को स्मरण नहीं था कि,१९१४ मुंबई अधिवेशन में ही पांच सदस्य समिती ने बहुमत से पारित किये प्रस्तावों के अनुरूप यह अधिवेशन हो रहा है।
इस ऐतिहासिक अधिवेशन के स्वागताध्यक्ष जगत नारायण,इन्होने कांग्रेस के बाहर रहे जहाल और मुसलमानों के पुनरागमन पर स्वागत करनेवाला भाषण दिया। अध्यक्ष अम्बिकाचरण मुजुमदार ने १९०७ सुरत अधिवेशन में कांग्रेस के जो दो फांक हुए थे उनके जुड़ जाने का आनंद व्यक्त किया।
कांग्रेस के साथ साथ मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा अधिवेशन होते रहे है। कई बार एक ही मंच सांझा हुआ करता रहा है या एक ही शहर होता था। इस अधिवेशन पूर्व मुस्लिम लीग का अधिवेशन संपन्न हुआ था। तो,इस अधिवेशन पश्चात हिन्दू महासभा की परिषद होने जा रही थी। सभी के स्थान भिन्न थे। मुस्लिम लीग ने पारित किए प्रस्ताव मसौदा कांग्रेस अधिवेशन के मंच पर दोनों पक्षों का सुधार योजना का प्रस्ताव संयुक्त पारित किया गया ,जो,पांच सदस्य समिती में पहले ही निर्धारित कर पारित किया था। इस प्रस्ताव को सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी ने २९ दिसंबर १९१६ को रखा और इसे "स्वराज्य प्रथम चरण" कहकर पारित किया गया। इसे लखनऊ पैक्ट भी कहते है। इस प्रस्ताव का हिन्दू महासभा नेता पंडित मदनमोहन मालवीय तथा देवरतन शर्मा ने तत्काल मंडप में ही विरोध किया। और वी.पी.माधवराघो की अध्यक्षता में परिषद आमंत्रित की। "मुसलमानों को विशेष पैकेज" देने का विरोध किया गया।महामंत्री सुखबीर सिंग ने मालवीयजी की अध्यक्षता में विशेष अधिवेशन आमंत्रित किया और लोकमान्य तिलक जो अभ्यागत थे उन्हें भी साथ बैठाया गया। धर्मवीर मुंजेजी ने नागपुर से टेलीग्राम भेजकर तिलकजी को निषेध व्यक्त किया था। निषेधात्मक प्रस्ताव पारित करने के साथ अपेक्षित मांगों को रखकर ३८ हिन्दू महासभा नेताओ का शिष्टमंडल राजा नरेन्द्रनाथ के नेतृत्व में मोटेंग्यु से मिला। इस विरोध पत्र में लोकमान्य तिलकजी की कोई कल्पकता थी ? इसपर कोई विचार खुलकर कभी प्रकट नहीं हुआ। मात्र हिन्दू महासभा नेता उन्हें आदर्श मानते थे। इस आदर्श के कारन ही यह पुष्टि मिलती है।
इस अधिवेशन में,चम्पारण्य आंदोलन के द्वारा ख्यातिप्राप्त बैरिस्टर गांधी की भूमिका केवल दस्तावेजो पर हस्ताक्षर ले आने की थी और मालवीयजी के मार्गदर्शन पर कार्य करने तक सीमीत ! मात्र ब्रिटिश सरकार ने क्रांतिकारियों को प्रतिबंधित करनेवाला "रौलेट एक्ट" जिसे काला कानून कहा जाता था उसका विरोध  करने मोर्चा,सभा लेकर जनजागृति अभियान भी चलाया। पंजाब सरकार ने जनता का असंतोष दबाने के लिए "मार्शल लॉ" लागु कर जमावबंदी लागु की। स्थानीय नेताओ को बंदी बनाया,तड़ीपार भी किया। कांग्रेस नेता लाला हंसराज की सहायता से बैसाखी के अवसर पर लोगों को निमंत्रित कर जनरल डायर ने जलियांवाला बाग में अमानुष हत्याकांड करवाया। बैरिस्टर गांधी को पंजाब प्रवेश के पूर्व जिला बंदी के नाम पर रस्ते में ही उतारकर मुंबई जानेवाली रेल में रवाना कर दिया।
संभवतः इस समय मोतीलाल नेहरू के इशारेपर सी.आर.दास ने गांधी पर दबाव बनाया था। गांधी ने रौलेट एक्ट के विरुध्द आरंभ किये आंदोलन को रोकने की घोषणा कर दी। मात्र मार्शल लॉ के बीच कांग्रेस अधिवेशन अमृतसर में हुआ। अध्यक्ष मोतीलाल गंगाधर नेहरू थे। गांधी का पंजाब में वजन बढ़ा अवश्य था परंतु,तिलकजी का स्वागत जोरदार हुआ। लोकमान्य तिलकजी जैसा किसी भी नेता का किसी भी प्रांत में स्वागत नहीं होता था। इसलिए भी लोकप्रिय तिलक विरोधी अनेक नेता थे। तिलकजी का क्रांतिकारी जहाल विचार गांधी को भी पसंद नहीं था।यह उस प्रस्ताव से स्पष्ट है जो नए मिले सुधारों के विषय में गांधी ने उपस्थित किया था। उस प्रस्ताव में,"इंग्लैंड के राजा और भारत के सम्राट का कोटिशः धन्यवाद किया गया था और नए मिले सुधारों को श्रध्दा-भक्ति से प्रयोग करने का आश्वासन था। " पंजाब के लोग इस प्रस्ताव से प्रसन्न नहीं थे। परंतु,गांधी के आग्रह पर मान गए। प्रस्ताव तिलक आदि के विरोध के पश्चात भी पारित हुआ।
इस समय तक गांधी व्यवहार हिन्दू विरोधी नहीं था। परंतु,इस अधिवेशन उपरांत गांधी बदले। लगभग मार्च १९२० उपरांत गांधी का पूर्ण व्यवहार हिन्दू हित को हानि पहुंचानेवाला बना। 
मोतीलाल नेहरू ने गांधी को धमकियां देकर इस नए व्यवहार के लिए उद्युक्त किया ऐसा उनके पत्रों से सिध्द होता है। ( हिंदुत्व की यात्रा-पृ.५२-५३ लेखक गुरुदत्त ; प्रकाशक शाश्वत संस्कृति परिषद ३०/ कनॉट सर्कस,नई देहली-१ ) गांधी नेहरू के इशारेपर नहीं चलते तो,लोकमान्य तिलक की भांति कारावास या बेझंट की भांति दुर्गती प्राप्त होते ऐसे संकेत इन पत्रो से मिलते है। 
लोकमान्य कांग्रेस के बाहर राज्यक्रांति के लिए आवाहन करते थे वह कांग्रेस के मंच से न हो इस प्रयास में कांग्रेस प्रयत्नशील रही। वहीं लोकमान्य तिलकजी ने "स्वराज्य ही मेरा जन्मसिध्द अधिकार है !" कहकर ब्रिटिश दासता के कांग्रेस में भय उत्पन्न किया था। १९०५ वाराणसी कांग्रेस में नामदार गोखले ने इसका अनुभव किया था।
तिलक आर्थिक-शारीरिक रूप से सशक्त न हो और न्यायालय के पेंच में फंसे रहे यही योजना संभवतः कांग्रेस नेता और ब्रिटिश सरकार की थी। चिरोल ने लंदन में उनपर अभियोग चलाया इसका कारन भी यही था। इस अभियोग के लिए तिलकजी को भारी आर्थिक क्षति हुई। इसलिए मराठी प्रान्त से उन्हें आर्थिक सहयोग के लिए चंदा इकठ्ठा कर साडेतीन लाख रुपये लंदन से अभियोग जीतकर वापस लौटने पर शनिवार बाड़ा,पुणे में सार्वजनिक सत्कार के साथ सुपुर्द किये गए। मात्र राष्ट्रीय स्तरपर "तिलक स्वराज्य फंड" इकठ्ठा हुआ था। जो,एक करोड़ तिस लाख उन्नीस हजार चारसौ पंद्रह रुपये पंद्रह आ ने सात पैसे हुआ था। और हरदिन उसमे वृध्दी हो रही थी। मोतीलाल नेहरू ने इसे पार्टी फंड कहकर देने से मना कर दिया। 
मुंबई में चल रहे अभियोग के लिए पहुंचे तिलक अचानक अस्वस्थ हुए। तीव्रज्वर ने उनके प्राण ३१ जुलाई १९२० की मध्यरात को स्वर्ग प्रयाण कर गए। और मोतीलाल ने कोलकाता-नागपुर दोनों बैठकों में लाला लाजपत राय तक को मुर्ख बनाकर प्रस्ताव पारित कर समिती बनाई। फिर भंग भी की और खिलाफत का दायित्व गांधी पर सौपकर करोडो रूपियो का वितरण,गबन किया।
अंततः मोतीलाल नेहरू ने लोकमान्य तिलक को प्रतिद्वंद्वी माना था। यह सिध्द होता है ! मोतीलाल को हटाने में तिलक सफल हो जाते और गांधी मालवीयजी का साथ न छोड़ते तो,अखंड हिन्दू स्वराज्य का उद्देश्य बलपूर्वक ही क्यों न हों संपन्न होता।