26 दिसंबर 2014

१३ अप्रैल, १९१९ को घटित जालियाँवाला बाग नरसंहार और उधमसिंग

१३ अप्रेल १९१९ लाला कन्हैय्यालाल जी की अध्यक्षता में रौलेट एक्ट के विरोध में बैसाखी समारोह में जनसभा की अफवाह ब्रिटिश एजेंट हंसराज ने फैलाई. इस आवाहन पर बीस सहस्त्र जन जलियांवाला बाग़ में इकठ्ठा हुए.मात्र लाला कन्हैय्यालाल को इसकी भनक नहीं थी.जनसभा के आरम्भ होते ही हंसराज रुमाल हिलाकर बाग से बाहर हौल बाजार की ओर निकल पड़ा. (अ.भा.हिन्दू महासभा पूर्व राष्ट्रिय अध्यक्ष स्व.श्री.न.चिं.केलकर लो.तिलक चरित्र खंड-३ से)

जलियांवाला बाग़ दुर्घटना से बचे कटड़ा दुलो,अमृतसर निवासी आर्य समाजी-हिन्दू महासभाई स्व.श्री.ज्ञानी पिंडीदासजी ने लिखा वर्णन, " १३ अप्रेल १९१९ बैसाखी दोपहर हंसराज सुनार कांग्रेसी बाद में सरकारी साक्ष बना था ने घोषणा की थी की, 'सायं.४ बजे जलियांवाला बाग़ में एडवोकेट कन्हैय्यालाल की अध्यक्षता में भरी पब्लिक जलसा में बड़े बड़े नेता भाग लेंगे ! ' इंस्पेक्टर अब्दुल्ला जीप से मार्शल लो की घोषणा करते गया.आदेश की अवहेलना करने पर गोली चलने की सूचना भी दे गया था. कुछ सज्जन जाने के लिए उतावले थे,आचार्य देव प्रकाश रोक रहे थे.मैंने कहा बाग तक जाकर भीड़ देखकर वापस लौटेंगे और हम १०-१२ लोग चल पड़े. वहा पहुंचे ज्ञानीजी अपने साथी चौधरी हंसराज दत्त को लेकर लौट ही रहे थे. डा.गुरबक्श राय भाषण दे रे थे और कुर्सी पर लाला कन्हैय्या लाल की फोटो पड़ी थी. जनरल डायर ५० जवानों के साथ पहुंचा और गोलिया चलायी.डायर के दानवी कृत्य से बारह- चौदह सौ व्यक्ति शहीद हुए.ढाई तिन सहस्त्र लोग विकलांग घायल हुए।" ( मा.जनज्ञान अप्रेल २००८ से ) 


२६ दिसंबर १८९९ को जन्मे,उधम कंबोज भी १३ अप्रैल, १९१९ को घटित जालियाँवाला बाग नरसंहार के प्रत्यक्षदर्शी थे। इस घटना से वीर उधम तिलमिला गए और उन्होंने जलियाँवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर माइकल ओ डायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ले ली। अपने मिशन को अंजाम देने के लिए उधम ने हंसराज की गद्दारी का प्रतिशोध लेने क्रां.उधम कम्भोज ने दाढ़ी बढाई पगड़ी पहनी,सिंह सजाया और उधमसिंह ने डायर को लन्दन जाकर गोलिया दागी। विभिन्न नामों से अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा की। सन् १९३४ में उधम सिंह लंदन पहुंचे और वहां ९ ,एल्डर स्ट्रीट,कमर्शियल रोड पर रहे। एक कार खरीदी और साथ में अपना मिशन पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी खरीद ली। भारत का यह वीर क्रांतिकारी माइकल ओ डायर को ठिकाने लगाने के लिए उचित समय की प्रतीक्षा करने लगा। जालियांवाला बाग हत्याकांड के २१ वर्ष पश्चात १३ मार्च १९४० को रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के काक्सटन हाल में एक बैठक थी जहां माइकल ओ डायर भी वक्ताओं में से एक था। उधमसिंह उस दिन समयपूर्व ही बैठक स्थल पर पहुंच गए। अपनी रिवॉल्वर उन्होंने एक मोटी किताब में छिपा ली थी। इसके लिए उन्होंने किताब के पृष्ठों को रिवॉल्वर के आकार में उस तरह से काट लिया था, जिससे डायर की जान लेने वाला हथियार आसानी से छिपाया जा सके।बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए उधमसिंह ने माइकल ओ डायर पर गोलियां दाग दीं। दो गोलियां माइकल ओ डायर को लगीं जिससे उसकी तत्काल मौत हो गई। उधमसिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर दुनिया को संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी बख्शा नहीं करते। उधम सिंह ने वहां से भागने की कोशिश नहीं की और अपनी गिरफ्तारी दे दी। उन पर मुकदमा चला। अदालत में जब उनसे पूछा गया कि वह डायर के अन्य साथियों को भी मार सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया ? उधम सिंह ने जवाब दिया कि वहां पर कई महिलाएं भी थीं और भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है !
४ जून १९४० को उधमसिंह कंबोज को हत्या का दोषी ठहराया और ३१ जुलाई १९४० को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई।

24 दिसंबर 2014

"भारतरत्न" पर स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी का अंतिम भाषण !

२६ दिसंबर १९६० ब्रिटिश सरकार द्वारा सावरकरजी को सुनाई दो आजीवन कारावास का अंतिम दिन अस्वास्थ्य के कारन हिन्दू महासभा द्वारा आयोजित "मृत्युंजय दिन" के कार्यक्रम में भाषण नहीं किया। 
१५ जनवरी १९६१ स पा महाविद्यालय पुणे के भव्य प्रांगण में २ लक्ष जनसमुदाय के समक्ष पेट में वेदना को सहकर भाषण दिया। इस भाषण में उन्होंने सरकार उन्हें भारतरत्न क्यों नहीं देती ? सावरकर प्रेमियों की इस शिकायत का उत्तर देते हुए कहां कि,
"इसके पश्चात मुझे किसी भी सन्मान की आवश्यकता नहीं। हिन्दुस्थान के २०/२५ विद्यापीठों ने प्रदान की MLD जैसी पदवियाँ मेरे पास धूल खा रही है। Phd  की पदवियों का भी वैसा ही है। ५० वर्ष पूर्व मुंबई सरकार ने वापस ली मेरी BA की पदवी परसो ही मुझे वापस मिली है। 
मुझे राष्ट्रपति नहीं बनाते ! इसपर असंतोष व्यक्त करनेवालो को मुझे पूछना है कि,मेरे जन्म दिन पर सावरकर सदन के सामने लोग दर्शन के लिए खड़े रहते है। क्या यह कम सन्मान है ? राष्ट्रपति पद से क्या कम सन्मान है ?
भगूर की मेरी जायदाद वापस नहीं करते ! इसपर असंतोष व्यक्त करनेवालो को उत्तर देते हुए  कहा कि,यह देश स्वतंत्र होते ही ३/४ भूमि मुझे मिली। इससे अधिक भगूर की भूमि बड़ी है क्या ? वह मुझे राष्ट्रपति बनाएंगे ही नहीं। फिर भी बनाया तो,देश की सीमा पूर्णतः सुरक्षित दो ही वर्ष में,रशियन नेता क्रुश्चेव ने यूनो में खड़े रहकर बूट मारने के लिए उठाया उस ही प्रकार मैं भी अपना जूता उठाकर दिखाऊंगा। चीन का पंचशील तत्व हमें स्वीकार नहीं। तोप,विमान,रनगाडा,अणु बॉम्ब,और क्षेपणास्त्र हमारे पंचशील !
अंततः मुझे यही कहना है कि,हमारा देश समर्थ और सभी देशो के साथ लोहा लेने के योग्य बनाने के लिए, "महाराष्ट्र को हिन्दुस्थान का खड्गहस्त बनना चाहिए !" क्योकि,महाराष्ट्र के हाथ में शक्ती आई तो वह संपूर्ण हिन्दुस्थान की रक्षा के लिए प्रयोग करेगा ! अन्य प्रांतो की भांति अपने पैरो तक देखने की महाराष्ट्र को आदत नहीं !
सावरकरजी के स्वीय सचिव स्वर्गीय शांताराम उपाख्य बालाराव सावरकर ने लिखकर भेजे पत्र के अनुसार,"आज तक लोकमान्य,स्वातंत्र्यवीर ऐसी महान पदवी किसी को मिली है ?" ऐसा सावरकरजी का महान विचार था। 

सत्ता के लिए सावरकर प्रतिमा को पूजनेवाले और सावरकरजी की हिन्दू महासभा का उत्थान रोकने के लिए प्रयत्नशील सुन्नती हिंदुओ से "सावरकरजी को भारतरत्न" पुरस्कार संभव नहीं। यह मांग हम वर्षो से सावरकरजी के लिए कर रहे थे। १५ फरवरी १९९५ महामहिम राष्ट्रपति महोदय (श्री शंकर दयाल शर्मा) को हमने हिन्दू महासभा के द्वारा एक पंजीकृत पत्र के द्वारा "स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी को भारतरत्न" देने की मांग की थी। २० फरवरी १९९५ को यह पत्र उन्हें मिला और एक पत्र प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजा था वह २६ फरवरी को "राष्ट्रपति भवन" पहुंचा। इन पत्रों का उत्तर मुझे ३० मार्च १९९५ को सचिव श्री सिध्दार्थ वामन मालवदे द्वारा भेजा गया।

इस पत्र के पश्चात उसका पीछा करना मेरा दायित्व था। वह हमने निभाया। अंततः भारत सरकार ने प्रकट किया कि,"भारतरत्न-पद्मविभूषण" जैसे पुरस्कार के लिए चयन करने के लिए कोई मार्गदर्शक तत्व नहीं है।" अटर्नी जनरल मिलान के बैनर्जी ने,सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष स्पष्टीकरण दिया। इस विषयपर इंदौर-केरल से दो याचिका भी लगी थी। ( UNI १५ नव्हम्बर १९९५)

१५ दिसंबर १९९५ को सर्वोच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में समिती बनाकर महामहिम से चर्चा विनिमय कर पुरस्कार की घोषणा करने के लिए कहा था। मात्र न्या कुलदीप सिंग ने इन पुरस्कारों के लिए चयनित लोगो के ऊपर उंगली उठाई थी। (PTI १५ दिसंबर १९९५)

हिन्दू महासभा से जनसंघ निर्माण और सावरकर नेतृत्व को कुचलने श्यामाप्रसाद मुखर्जी का अपहरण कर सावरकर विरोध के पश्चात भी मुखर्जी को नेहरू के इशारेपर कश्मीर ले जाकर छोड़नेवाले,अल्पसंख्य आयोग के निर्माता,श्रीराम जन्मस्थान मंदिर परिसर को समतल करने का आदेश देनेवाले, कारगिल युध्द में पाकिस्तानी सैनिको को वापस जाने के लिए सैफ पैसेज देनेवाले "भारतरत्न ?" 

इस ही लिए अखिल भारत हिन्दू महासभा संस्थापक महामना पंडित मदनमोहन मालवीयजी का विकल्प चुनकर हिन्दू महासभा का विरोध कुचलने का षड्यंत्र गांधी-नेहरू-पटेल के इशारेपर जन्मे जनसंघी-भाजप-मोदी और समर्थको ने किया है।  

10 दिसंबर 2014

नेहरू-पटेल के इशारेपर गुरूजी के आदेश पर "भारतीय जनसंघ" की स्थापना

देवतास्वरूप भाई परमानंदजी ने लाहोर में १९२२ में स्थापित "हिन्दू स्वयंसेवक संघ" का १९२३ अखिल भारत हिन्दू महासभा वाराणसी अधिवेशन में विलय करने के कारन, रा.स्व.संघ की स्थापना में धर्मवीर मुंजे,भाई परमानंद,सावरकर बंधू,संत पाँचलेगावकर महाराज हिन्दू महासभा नेताओ की भावना गैर राजनितिक सहयोगी युवक संघठन की थी,उसके विस्तारपर अधिक ध्यान दिया.ताकी संघ शिक्षा पध्दती से निकलकर युवक हिन्दू महासभा की राजनीती में सक्रीय हो.इसलिए हिन्दू महासभा ने पक्ष संघठन विस्तार पर अधिक बल नहीं  दिया.संघ-सभा परस्पर पूरक थे.(शिवकुमार मिश्र)
हिन्दू महासभा का विस्तार संघ विस्तार पर निर्भर रहा,स्वा.वीर सावरकरजी ने संघ का विलय हिन्दू महासभा में कर "हिन्दू मिलिशिया"स्थापन करने का १९३९ में प्रस्ताव रखा और संघ संस्थापक डा.मुंजे जी ने भी उसे समर्थन दिया.(वा.कृ.दानी) तरुण हिन्दू सभा के गणेश दा.सावरकरजी,डा.हेडगेवारजी सहमत नहीं थे.                        २१ जुन १९४० हेडगेवारजी का असमय निधन और पिंगळेजी का सरसंघ चालक बनना तय था मात्र गुरु गोलवलकरजी ने पद कब्जाकर ३ जुलै संघ नेतृत्व परिवर्तन के बाद संघ-सभा में दूरिया बढ़ गयी.यदि १९४८ तक भी हेडगेवारजी जीवित रहते तो हिन्दू महासभा केंद्रीय सत्ता में होती और अखंड भारत का विभाजन न होता.१९४६ के असेम्ब्ली चुनाव में गुरूजी ने सावरकर विरोध में हिन्दू महासभा की दर्शिका पर चुनाव लड़ रहे संघ के प्रत्याशियों को अंतिम समय नामांकन वापस लेने का तथा नेहरू के खुले समर्थन की घोषणा कर विभाजन में अप्रत्यक्ष योगदान दिया। इन दुरियोपर अनेक विद्वानों ने मत लिखे है,
दी.३०-३१ दिस.१९३९ कोलकाता हिन्दू महासभा राष्ट्रिय अधिवेशन में सावरकरजी ३ बार अध्यक्ष चुने गए.डा.हेडगेवारजी राष्ट्रिय उपाध्यक्ष,एम्.एम्.घटाटेजी कार्य समिति सदस्य,हिन्दू महासभा भवन मंत्री रहे गुरु गोलवल करजी महामंत्री पद का चुनाव हार गए,उस हार का ठीकरा सावरकरजी पर फोड़कर हिन्दू महासभा त्याग दी,हेडगेवारजी ने उनकी नाराजगी दूर करने संघ सह कार्यवाह बनाया.हेडगेवारजी के देहावसान बाद सावरकर विरोध में नेहरू-गाँधी के पिछलग्गू बनकर हिन्दू महासभा-सावरकरजी के प्रति घृणा फैली.(अधि.भगवानशरण अवस्थी)                                                                                                                     १९४५-४६ असेम्बली चुनाव कांग्रेस को मु.लीग ,हिन्दू महासभा से पराजय की आशंका थी,नेहरूने अखंड हिन्दुस्थान का आश्वासन दिया और गुरूजी को विश्वास दिलाया.गुरूजी ने कांग्रेस का खुला समर्थन करते हुए  संघ समर्थक सभाई प्रत्याशियों को अंतिम क्षण नामांकन वापस लेने का आदेश दिया,परिणाम स्वरुप १६%मत मिले और देश बट गया..कांग्रेस ने हिन्दुओ की ओरसे विभाजन करार पर हस्ताक्षर किया.(चित्र भूषण-मोडल टाउन दिल्ली)                                                                                                                               विभाजनोत्तर निर्वासितो की दुर्दशा जम्मू कश्मीर में घुसपैठ के बाद भी ५५ करोड़ पाक को देने का हठ,अनशन  गाँधी हत्या हिन्दू महासभा के पूर्व महामंत्री,हिन्दुराष्ट्र दल संस्थापक पं.नाथूराम गोडसे जी ने की.हिन्दू नेताओ पर अभियोग चला,उद्योग मंत्री मुखर्जी को नेहरू ने कहा "मंत्री मंडल में आपकी उपस्थिति विवादास्पद रहेगी जब तक आप हिन्दू महासभा त्यागते नहीं या हिन्दू महासभा के द्वार गैर हिन्दुओ के लिए खोले नहीं जाते."' इस संदर्भा में मुखर्जीजी ने हिन्दू महासभा के समक्ष प्रस्ताव रखे जिसमे "हिन्दू" शब्द निकालने की भी बात थी.दी.१४ अगस्त १९४८ अखंड हिन्दुस्थान संकल्प दिवस पर हुई कार्य समिति ने इन प्रस्तावों का खंडन किया.६ सप्तम.को मुखर्जी ने श.रा.दाते जी को पत्र लिखा. २४ दिस.१९४९ कोलकाता अधिवेशन डा.ना.भा.ख़रेजी की अध्यक्षता में सम्पन्न होने जा रहा था,सावरकरजी की उपस्थिति के कारन उत्साह था,सावरकरजी के अनुयायी उ.प्र.हिन्दू महासभा अध्यक्ष महंत दिग्विजय नाथ जी को श्री राम जन्मस्थान मंदिर विवाद समाप्त करने का दायित्व सौपा गया था ,अधिवेशन आरम्भ होने से पूर्व श्री राम जन्मस्थान में घंटा नाद हुवा."अधिवेशन में राज्यों का स्वरुप जातिवादी नहीं होना चाहिए,सभी जाती-धर्म-पंथ के लोगो को सामान विधि एवम समान अवसर हो ऐसी भावना व्यक्त कर प्रस्ताव पारित हुवा."पार्लियामेंट्री कमेटी ने जिन्हें हिन्दू महासभा के कार्यक्रम मान्य हो उनके लिए हिन्दू महासभा के द्वार खोले गए.
        २४ दिसंबर १९४९ श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन में हिन्दू महासभा को मिली सफलता से जनाधार न बढे इस उद्देश्य के साथ नेहरू-पटेल के इशारेपर गुरूजी के आदेश पर उ भा संघ चालक बसंतराव ओक ने मुखर्जी की भेट लेकर गुरूजी से मिलवाया। "पीपल्स पार्टी" की घोषणा हुई और संघ समर्थकों ने प्रादेशिक स्तर पर गठित इकाइयों को मिलाकर कानपूर अधिवेशन में "भारतीय जनसंघ" की स्थापना करते समय हिन्दू महासभा में सेंधमारी कर हिन्दू राजनीती को पलीता लगाकर वर्षो तक कांग्रेस के इशारे का पालन किया।  

8 दिसंबर 2014

काशी विश्वनाथ मंदिर मुक्ति आन्दोलन और हिन्दू महासभा !

  
 काशी में श्री विश्वनाथ मंदिर से भी अधिक महत्त्व पूर्ण मंदिर अविमुक्तेश्वर का था जो चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में जीर्णोध्दारित हुवा था.महमद घोरी ने काशी के एक सहस्त्र मंदिर धराशायी किये और उनपर मस्जिदे खडी की.गझनी का महमूद का सेनाधिकारी शहाबुद्दीन ने काशी विश्वनाथ और अविमुक्तेश्वर का मंदिर ध्वस्त किया. तेरहवी शताब्दी में गुजरात के एक व्यापारी ने एक लक्ष का दान देकर विश्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया.उसके बगल में रजिया सुल्तान की बनायीं मस्जिद थी, वह अतिवृष्टि में धराशायी हुई तब उसमे से प्राचीन विश्वनाथ मंदिर के अवशेष प्राप्त हुए.मिर्झा राजा जयसिंग ने काशी विश्वनाथ मंदिर निर्माण करवाया.१८ अप्रेल १६६९ के  औरन्गजेब के आदेश से विश्वनाथ मंदिर के साथ अन्य कई मंदिर,पाठशाला २ सप्तम्बर १६६९ को ध्वस्त किये गए.उस अवशेष पर आलमगीर मस्जिद खडी है.जेम्स प्रिंसेस ने १८३१ में प्रकाशित किये चित्र में उसके प्रमाण है. इतिहासकार एम्.ए.शेटिंग ने भी यही निष्कर्ष निकाला क्यों की,स्तम्भ गुप्त कालीन नक्काशी के है.विद्यमान काशी विश्वनाथ मंदिर १७७० में महारानी अहिल्यादेवी होलकर ने बनवाया है.


       आक्रान्ता रोहिलाओ के विरुध्द अयोध्या के नबाब ने मराठा सत्ता से सहायता मांगी तब मराठा राजकर्ताओ ने काशी,मथुरा,प्रयाग,प्रयाग इन तीर्थ क्षेत्रो को हमारे अधीन करो यह शर्त रखी,नबाब ने मान्य भी की.विजय भी हुए परन्तु,मराठाओ ने वहा रहकर कैसे कब्ज़ा रखना यह विवंचना थी और स्थानीय लोग भय के कारन निगरानी के लिए तयार नहीं हुए.मराठा उत्तर हिन्दुस्थान में न रहे यह ब्रिटिशोंकी भी मंशा थी इसलिए विरोध हुवा,उन्होंने काशी पर कब्ज़ा किया.नाना फडनविस जी ने अंग्रेजों को मस्जिद हटाने की मांग की थी.परन्तु,हिन्दू-मुस्लिम विवाद चलता रहे यह उनकी मंशा थी इसलिए मांग को अमान्य किया.

     काशी विश्वनाथ मंदिर तिन बार गिराया गया और तिन बार हिन्दुओ ने बनाया.आज दर्शन हो रहा मंदिर तीसरी बार महारानी अहिल्यादेवी होलकर जी ने बनाया महाराजा रणजीतसिंहजी ने शिखर पर स्वर्ण पत्र लगवाए.मात्र आज भी काशीविश्वनाथ मंदिर संरक्षित मस्जिद के रूप में खड़ा है.

        श्रीराम जन्मस्थान मंदिर आन्दोलन के पश्चात् सन १९५८-५९ हिन्दू महासभाने मंदिर पुनर्निर्माण के लिए सत्याग्रह आन्दोलन आरम्भ किया.यह आन्दोलनक्रम बध्द वर्ष तक चला.ज्ञानवापी के सामने प्रचंड नंदी के बिच ऊपर बैठकर यज्ञ किया जाता था पुलिस रोकती और कारागार ले जाती थी.गंगा घाट हिन्दू महासभा का कार्यालय था (अब कथित हिंदुवादियो ने कब्ज़ा कर रखा है.) वहा से सभाई जाते थे.अखिल भारत हिन्दू महासभा राष्ट्रिय अध्यक्ष प्रा.वि.घ.देशपांडे भी बंदी बने थे.यह मस्जिद नहीं मंदिर है ! ऐसा निर्णय हो चूका है फिर भी सरकार उसे सौपती नहीं ! ऐसी शिकायत लेकर हिन्दू महासभाई वीर सावरकर जी के निवास स्थान दादर पहुंचे.सावरकर जी ने पूछा "आपने सत्याग्रह क्यों किया ? काशी में कितने हिन्दू है?

काशी के लक्षावधि हिन्दुओ के संयुक्त प्रयास से मस्जिद गिराई जा सकती है.किसी एक हिन्दुने काल ध्वम्म बनकर प्रवेश किया तो वह मस्जिद रहेगी ? यह क्रान्ति मार्ग है.शत्रु के सामने सत्याग्रह नहीं."
जनसंघ-विहिंप-भाजप का हिन्दूघाती आंदोलनो का इतिहास देखते हुए मंदिर नहीं शौचालय की सोच रखनेवाले राजनीतिक-आर्थिक-श्रेय की राजनीती करना चाहेगी तो,सर्व प्रथम प्रश्न यह खड़ा होता है कि,ज्ञानवापी मंदिर होने का न्यायालय का निर्णय हिन्दू महासभा के पक्ष में आने के बाद भी सत्ता में रहते उसके लिए क्या किया ?

वाराणसी का विश्वनाथ मंदिर मुसलमानों ने कितनी बार तोडा ?
Destruction of Kashi Vishwnath Shiv Temple in Varanasi by Muslims.





7 दिसंबर 2014

श्रीकृष्ण जन्मभूमी तेरी कहानी !

त्रेतायुग में श्रीराम के बंधू शत्रुघ्न ने लवणासुर नामक राक्षस का वध कर मथुरा की स्थापना की थी। 
द्वापारयुग में यहां श्रीकृष्ण के जन्म लेने के कारण इस नगर की महिमा और अधिक बढ़ गई।यहां के मल्लपुरा क्षेत्र के कटरा केशवदेव स्थित कंस मामा के कारागार में लगभग पांच हजार दो सौ वर्ष पूर्व भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में रात्रि के ठीक १२ बजे श्रीकृष्ण ने देवकी के गर्भ से जन्म लिया था। यह स्थान उनके जन्म लेने कारण अत्यंत पवित्र माना जाता है. 
पुरातात्विक एंव ऐतिहासिक साक्ष है की श्रीकृष्ण के जन्मस्थान को विभिन्न नामो से जाना जाता था। पुरातत्वविद और तात्कालिक मथुरा के कल्लेक्टर एफ.एस.ग्रौजा के अनुसार केवल कटरा केशवदेव और आस पास के परिसर को ही मथुरा के रूप में जाना जाता जाता था। ऐतिहासिक साहीत्य का अध्यन करने के पश्चात ब्रिटीश पुरातत्वविद कैनिंगहैम इस निष्कर्ष पर पहुचे की वहां एक मधु नाम का राजा हुआ जिसके नाम पर उस जगह का नाम मधुपुर पड़ा , जिसे हम आज महोली के नाम से जानते है। राजा की हार के पश्चात् कारागार के आस पास की जगह को जिसे हम आज “भूतेश्वर” के नाम से जानते है, को ही मथुरा कहा जाता था। एक अन्य इतिहासकार डॉ वासुदेव शरण अगरवाल ने कटरा केशवदेव को ही श्रीकृष्ण जन्मभूमि कहा है। इन विभिन्न अध्ययनो एवं प्रमाणो के आधार पर मथुरा के राजनितिक संग्रहालय के दुसरे क्यूरेटर श्री.कृष्णदत्त वाजपेयी ने स्वीकार किया की कटरा केशवदेव ही श्रीकृष्ण की जन्मभूमि है।
पुरातात्विक प्रमाण एवं हमलों का इतिहास
* प्रथम मन्दिर
पुरातात्विक विश्लेषणों, पुरातात्विक पत्थरों के टुकडो के अध्ययन एवं विदेशी यात्रियों की लेखनियो से यह स्पष्ट होता है कि, इस स्थान पर समय समय पर कई बार भव्य मंदिर बनाये गए। प्रमाण बताते है की कंस की जेल के स्थान पर पहला मंदिर, जहाँ श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था, उसें श्रीकृष्ण के पडपोते “ब्रजनाभ ” ने बनवाया था।
ईसवी सन पूर्व ८०/५७ कालखंड के महाक्षत्रप सौदास के समय के एक शिलालेख से ज्ञात होता है जो कि ब्राह्मी लिपि में पत्थरों पर लिखे गए के “महाभाषा षोडश” के अनुसार वासु नाम के एक व्यक्ति ने श्रीकृष्ण के जन्मस्थान पर बलि वेदी का निर्माण करवाया। 
* द्वितीय मन्दिर
दूसरा मन्दिर विक्रमादित्य के काल में सन् ८०० के लगभग बनवाया गया था। संस्कृति और कला की दृष्टि से उस समय मथुरा नगरी बड़े उत्कर्ष पर थी। वैष्णव धर्म के साथ बौद्ध और जैन पंथ भी उन्नति पर थे। श्रीकृष्ण जन्मस्थान के संमीप ही जैनियों और बौद्धों के विहार और मन्दिर बने थे। यह मन्दिर सन १०१७-१८ में महमूद ग़ज़नवी के कोप का भाजन बना। इस भव्य सांस्कृतिक नगरी की सुरक्षा की कोई उचित व्यवस्था न होने के कारण महमूद ने इसे ख़ूब लूटा। भगवान केशवदेव का मन्दिर भी तोड़ डाला गया।
मीर मुंशी अल उताबी, जो की गजनी का सिपहसालार था ने तारीख-ए-यमिनी में लिखा है की,
” शहर के बीचो बिच एक भव्य मंदिर मौजूद है जिसे देखने पर लगता है की इसका निर्माण फरिश्तो ने कराया होगा। इस मंदिर का वर्णन शब्दों एंव चित्रों में करना नामुमकिन है। सुल्तान खुद कहते है की अगर कोई इस भव्य मंदिर को बनाना चाहे तो कम से कम १० करोड़ दीनार और २०० साल लगेंगे। “
हालाँकि गजनी ने इस भव्य मंदिर को अपने गुस्से की आग में आकर ध्वस्त कर दिया। स्थानीय निवासियों का कत्लेआम किया, युवतियों को उठाकर साथ ले गया। और जवाहरलाल नेहरु अपनी  पुस्तक “भारत की खोज” में गजनी को बहुत बड़ा वास्तु कला का प्रेमी बताता है, जिसने अव्यवस्थित मथुरा को तोडकर उसका कलात्मक निर्माण कराया। ये है नेहरु और कांग्रेसियों का सुनहरा इतिहास। 
* तृतीय मन्दिर
संस्कृत के एक शिला लेख से ज्ञात होता है कि महाराजा विजयपाल देव जब मथुरा के शासक थे, तब सन ११५० में जज्ज नामक किसी व्यक्ति ने श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर एक नया मन्दिर बनवाया था। यह विशाल एवं भव्य बताया जाता हैं। कटरा केशवदेव के पत्थरों पर संस्कृत भाषा में लिखे गए प्रमाणो से स्पष्ट होता है की मुस्लिम शासको की नजरो में यह मंदिर तबाही का लक्ष्य बन गया था। सिकंदर लोदी के शासन के दौरान श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर एक बार पुनः तोडा गया।
* चतुर्थ मन्दिर
मुग़ल बादशाह जहाँगीर के शासनकाल में श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर पुन: एक नया विशाल मन्दिर का निर्माण कराया गया। ओरछा के शासक राजा वीरसिंह जूदेव बुन्देला ने इस मंदिर की ऊँचाई २५० फीट बनाई थी। यह मंदिर आगरा से भी दिखाई देता था,ऐसा बताया जाता है। 
मुस्लिम शासको की बुरी नजर से मंदिर की रक्षा करने के लिए इसके आस पास एक ऊँची दिवार बनाने का भी आदेश दिया था। उसके अवशेष हम आज भी मंदिर के आस पास घुमकर देख सकते है।
* औरंगजेब द्वारा विशाल मंदिर का विनाश
फ्रांस एवं इटली से आये तत्कालीन विदेशी यात्रियों ने इस मंदिर की व्याख्या अपनी लेखनियो से  सुरुचिपूर्ण और वास्तुशास्त्र के एक अतुल्य एंव अदभुत कीर्तिमान के रूप में की। वो आगे लिखते है की,“इस मंदिर की बाहरी त्वचा सोने से ढकी हुई थी और यह इतना ऊँचा था की ३६ मिल दूर आगरा से भी दिखाई देता था। इस मंदिर की हिन्दू समाज में ख्याति देखकर औरंगजेब नाराज हो गया जिसके कारण उसने सन १६६९ में इस मंदिर को ध्वस्त करवाया। वह इस मंदिर से इतना चिढा हुआ था की उसने मंदिर से प्राप्त अवशेषों से अपने लिए एक विशाल कुर्सी बनाने का आदेश दिया। उसने श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर ईदगाह बनाने का भी आदेश दिया है. “ उपरोक्त कथन विदेशियों ने लिखे है। अगर ये सब किसी हिन्दू ने लिखा होता तो उसे भी किवंदती कहकर रानी पद्मावती की तरह नकार दिया जाता। विदेशी और मुसलमानों के लेखो का उदाहरण,'औरंगजेब को उसके इस दुष्कर्म की सजा मिली। मंदिर विध्वंस के पश्चात वह कभी सुखी नहीं रह सका और अपने दक्षिण के अभियान से जिन्दा वापस नहीं लौट सका। केवल उसके बेटे ही उसके विरुद्ध नहीं खड़े हुए बल्कि वे ईदगाह की भी रक्षा नहीं कर सके। और आख़िरकार आगरा और मथुरा पर मराठा साम्राज्य का अधिकार हो गया।
इसके बाद का इतिहास - मराठो ने कटरा केशवदेव को ईदगाह समेत अधिकार मुक्त घोषित कर दिया। स्थानीय लोग बाहरी हिंदूओ से अपेक्षा और आक्रांताओ से हाथ मिलाते रहने की हिंदुघाती परंपरा का वहन करते रहे, यह है हिन्दुओ का सच ! मथुरा पर कब्ज़ा हुआ तो स्थानीय निवासियो ने मस्जिद तोड़ने की बात तो दूर, मंदिर भी नहीं बनवाया।
सन १८०२ में लोर्ड लेक ने मराठो पर जीत हासिल की और मथुरा एवं आगरा इस्ट इंडिया कंपनी के अधीन चले गए। इस्ट इंडिया कम्पनी ने भी इसे अधिकार मुक्त ही माना। सन १८१५ में इस्ट इंडिया कम्पनी ने कटरा केशवदेव के १३.३७ एकड़ के हिस्से की नीलामी की घोषणा की। जिसे काशी नरेश पत्निमल ने खरीद लिया। इस खरीदी हुई जमीन पर राजा पत्निमल एक भव्य श्रीकृष्ण मंदिर बनाना चाहते थे। किन्तु मुसलमानों ने इसका यह कह कर विरोध किया की नीलामी केवल कटरा केशवदेव के लिए थी ईदगाह के लिए नहीं। 
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       सर्वविदित है की किस तरह मंदिर को तोड़ कर उसपर अवैध निर्माण किया गया.उसपर कोई भी विवाद और दावे करना सामाजिक रूप से कितना गलत है फिर भी हिन्दूओ की इस सहिष्‍णुता किसी की भावना आहत करना और साम्प्रदायिकता फैलाने की नही रही है |
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ब्रिटिश शासन काल से लेकर अभी तक कुल ६ बार मुस्लिम अभियोग हारे और न्यायालयीन पुष्टी के साथ पूरा कटरा केशवदेव १३.३७ एकड़ भूमी हिन्दुओं की है. 
* सन १८७८ में मुसलमानों ने पहली बार एक अभियोग दाखल किया। 
मुसलमानों ने दावा किया की कटरा केशवदेव ईदगाह की सम्पति है और ईदगाह का निर्माण औरंगजेब ने कराया था इसलिए इस पर मुसलमानों का अधिकार है। इसके लिए मथुरा से प्रमाण मांगे गए। 
तत्कालिक मथुरा कलेक्टर मिस्टर टेलर ने मुसलमानों के दावे को ख़ारिज करते हुए कहा की यह क्षेत्र मराठो के समय से स्वतंत्र है। जो कि, इस्ट इंडिया कम्पनी ने भी स्वीकार किया। जिसे सन १८१५ में काशी नरेश पत्निमल ने नीलामी में खरीद लिया। उन्होंने अपने आदेश में आगे जोड़ते हुए कहा की राजा पत्निमल ही कटरा केशवदेव, ईदगाह और आस पास के अन्य निर्माणों के मालिक है।
* दूसरी बार यह अभियोग मथुरा के न्यायधीश एंथोनी की अदालत में अहमद शाह बनाम गोपी आईपीसी धारा ४४७/३५२ के रूप में दाखिल हुआ। 
अहमद शाह ने आरोप लगाया की ईदगाह का चौकीदार गोपी कटरा केशवदेव के पश्चिमी हिस्से में एक सड़क का निर्माण करा रहा है। जबकि यह हिस्सा ईदगाह की संपत्ति है। अमहद शाह ने चौकीदार गोपी को सड़क बनाने से रोक दिया। 
इस अभियोग का निर्णय सुनाते हुए न्यायधीश ने कहा की," सड़क एंव विवादित जमीन पत्निमल परिवार की संपत्ति है। तथा अहमद शाह द्वारा लगाये गए आरोप झूठे है।"
* तीसरा अभियोग सन १९२० में आगरा जिला न्यायलय में दाखिल किया गया।
इस मुक़दमे में मथुरा के न्यायधीश हूपर के निर्णय को चुनौती दी गयी थी। (अपील संख्या २३६ (१९२१) एंव २७६(१९२०)) । इस मुक़दमे का निर्णय सुनाते हुए पुनः न्यायलय ने आदेश दिया की," विवादित जमीन इस्ट इंडिया कंपनी द्वारा राजा पत्निमल को बेचीं गयी थी जिसका भुगतान भी वो ११४० रूपये के रूप में कर चुके है। इसलिए विवादित जमीन पर ईदगाह का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि ईदगाह खुद राजा पत्निमल की संपत्ति है।"
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संपूर्ण क्षेत्र पर हिन्दू अधिकारों की घोषणा
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* सन १९२८ में मुसलमानों ने ईदगाह की मरम्मत की कोशिश की। जिसके कारण यह विवाद पुनः न्यायालय में चला गया। 
पुनः न्यायधीश बिशन नारायण तनखा ने निर्णय सुनाते हुए कहा की," कटरा केशवदेव राजा पत्निमल के उत्तराधिकारियो की संपत्ति है। मुसलमानों का इस पर कोई अधिकार नहीं है इसलिए ईदगाह की मरम्मत को रोका जाता है।"
सन १९४४ में अखिल भारत हिंदू महासभा संस्थापक पंडित श्री मदन मोहन मालवीयजी की प्रेरणा से हिंदू महासभाई श्री.जुगल किशोर बिडलाजी ने श्री क्षेत्र १३,४०० रुपए में ७ फरवरी १९४४ को  खरीद लिया और हनुमान प्रसाद पोतदार, भिकामल अतरिया एवं मालवीयजी के साथ मिल कर मालवीयजी की मंदिर पुनरूद्धार की योजना बनाई। जो उनके जीवनकाल में पूरी न हो सकी, उनकी अन्तिम इच्छा के अनुसार बिड़लाजी ने २१ फ़रवरी १९५१ को एक ट्रस्ट बनाया।
* सन १९४६ में विवाद फिर न्यायालय में गया। इस बार भी न्यायालय ने कटरा केशवदेव पर राजा पत्निमल के वंशजो का अधिकार बताया जो अब श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट की संपत्ति है। क्योकि, इसे राजा पत्निमल के वंशजो ने इस ट्रस्ट तो बेच दिया था।
* अंतिम बार सन १९६० में पुनः न्यायलय ने आदेश देते हुआ कहा की:
“मथुरा नगर पालिका के बही खातो तथा दसरे प्रमाणो का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है की कटरा केशवदेव जिसमे ईदगाह भी शामिल है का लैंड टैक्स श्रीकृष्ण जन्मभूमि संस्था द्वारा ही दिया जाता है। इससे यह साबित होता है की," विवादित जमीन पर केवल इसी ट्रस्ट का अधिकार है।"इस प्रकार एक बार नहीं पुरे छ: बार न्यायालयो ने श्रीकृष्ण जन्मभूमी मथुरा पर हिन्दुओ का अधिकार स्वीकार किया। अब इस देश के सत्ताधारी न्यायालय का निर्णय लागु करेंगे ?
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श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट की स्थापना १९५१ में हुई. परन्तु, उस समय मुसलमानों की ओर से १९४५ में किया हुआ एक अभियोग इलाहाबाद हाईकोर्ट में निर्णयाधीन था इसलिए ट्रस्ट द्वारा जन्मस्थान पर कोई निर्माणकार्य ७ जनवरी १९५३ से पूर्व विवाद निरस्त होने तक किया न जा सका।
उपेक्षित/विवादित अवस्था में पड़े रहने के कारण उसकी दशा अत्त्यंत दयनीय थी। कटरा के पूरब की ओर का हिस्सा सन १८८५ के आसपास तोड़कर बृन्दावन रेल लाइन निकाली गयी थी। अन्य तीन दिशाओ के परकोटा की भित्तीयां और उसके अगल बगल सटी कोठरियाँ जगह-जगह गिर गयी थीं और उसका मलबा फैला पड़ा था। श्रीकृष्ण चबूतरा का खण्डहर भी विध्वंस किये हुए मंदिर की विशालता के द्योतक के रूप में खड़ा था। 
चबूतरा पूरब-पश्चिम लम्बाई में १७० फीट और उत्तर-दक्षिण चौड़ाई में ६६ फीट है। इसके तीनों ओर १६ फीट चौड़ा पुश्ता था जिसे सिकन्दर लोदी से पहले कुर्सी की सीध में राजा वीरसिंह देव ने बढ़ाकर परिक्रमा पथ का काम देने के लिये बनवाया था। यह पुश्ता भी खण्डहर हो चुका था। इससे क़रीब दस फीट नीची गुप्त कालीन मंदिर की कुर्सी है जिसके किनारों पर पानी से अंकित पत्थर लगे हुए हैं।
उत्तर की ओर एक बहुत बड़ा गढ्डा था जो पोखर के रूप में था। समस्त भूमि का दुरूपयोग होता था, बलात स्थापित मस्जिद के आस-पास घोसियों की बसावट थी जो कि आरम्भ से ही मस्जिद का विरोध करते रहे हैं। 
न्यायालय दीवानी, फ़ौजदारी, माल, कस्टोडियन व हाईकोर्ट सभी न्यायालयों में एवं नगरपालिका में उनके चलायें गये दांवो में अपने सत्व एवं अधिकारों की पुष्टि तथा रक्षा के लिए बहुत कुछ व्यय व परिश्रम करना पड़ा। सभी विवादो के न्यायालयीन निर्णय जन्मभूमि-ट्रस्ट के पक्ष में हुए।
मथुरा के प्रसिद्ध वेदपाठी ब्राह्मणों द्वारा हवन-पूजन के पश्चात श्री स्वामी अखंडानन्द जी महाराज ने सर्वप्रथम श्रमदान का श्रीगणेश किया और भूमि की स्वच्छता का पुनीत कार्य आरम्भ हुआ। 
दो वर्ष तक नगर के कुछ स्थानीय युवकों ने अत्यन्त प्रेम और उत्साह से श्रमदान द्वारा उत्तर ओर के ऊँचे-ऊँचे टीलों को खोदकर बड़े गड्डे को भर दिया और बहुत सी भूमि समतल कर दी। कुछ विद्यालयों के छात्रो ने भी सहयोग दिया।भूमि के कुछ भाग के स्वच्छ और समतल हो जाने पर भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन एवं पूजन-अर्चन के लिए एक सुन्दर मन्दिर का निर्माण किया गया।
मंदिर में भगवान के बल-विग्रह की स्थापना,जिसको श्री.जुगल किशोर बिड़ला जी ने भेंट किया था,आषाढ़ शुक्ल-द्वितीया संवत २०१४ दिनांक २९ जून १९५७ को हुई,और इसका उद्घाटन भाद्रपद कृष्ण अष्टमी संवत २०१५ दिनांक ६ सप्तंबर १९५८ को 'कल्याण' मासिक (गीता प्रेस) के यशस्वी संपादक संतप्रवर श्री.हनुमान प्रसाद पोद्दार के कर-कमलों द्वारा हुआ। 
उसके बाद यहां भव्य मंदिर का निर्माण हुआ। भागवत भवन यहां का प्रमुख आकर्षण है। यहां पांच मंदिर हैं जिनमें राधा-कृष्ण का मंदिर मुख्य है। मथुरा का अन्य आकर्षण असिकुंडा बाजार स्थित ठाकुर द्वारिकाधीश महाराज का मंदिर है। यहां वल्लभ कुल की पूजा-पद्धति से ठाकुरजी की अष्टयाम सेवा-पूजा होती है। देश के सबसे बड़े व अत्यंत मूल्यवान हिंडोले द्वारिकाधीश मंदिर के ही है जो कि, सोने व चांदी के है। यहां श्रावण माह में सजनेवाली लाल,गुलाबी,काली व लहरिया आदि घटाएं विश्व प्रसिद्ध हैं।
मथुरा में यमुना के प्राचीन घाटों की संख्या २५ है। उन्हीं सबके बीचों-बीच स्थित है- विश्राम घाट। यहां प्रात: व सायं यमुनाजी की आरती उतारी जाती है। यहां पर यमुना महारानी व उनके भाई यमराज का मंदिर भी मौजूद है। विश्राम के घाट के सामने ही यमुना पार महर्षि दुर्वासा का आश्रम है।इसके अतिरिक्त मथुरा में भूतेश्वर महादेव,धु्रव टीला,कंस किला,अम्बरीथ टीला,कंस वधस्थल, पिप्लेश्वर महादेव,बटुक भैरव,कंस का अखाड़ा,पोतरा कुंड,गोकर्ण महादेव,बल्लभद्र कुंड,महाविद्या देवी मंदिर आदि प्रमुख दर्शनीय स्थल है।